प्रेम की अन्तिम अभिव्यक्ति है, जब आप प्रेम करते नहीं बल्कि खुद प्रेम हो जाते हैं। क्योंकि जब तक प्रेम किया जाता है भले ही सबसे अच्छे तरीके से क्यों न किया जाए, उस किए हुए प्रेम के पीछे एक दिमाग या मन (इन्द्रियां) हमेशा लगा रहता है जो इस किए हुए प्रेम को संचालित करता है । इस प्रकार ऐसा प्रेम यूटिलिटी बनकर ही रह जाता है। प्रेम में अगर दिमाग और इन्द्रियों का हस्तक्षेप है तब प्रेम की शुद्धता बरकरार नहीं रहती । अगर इस से बचना है तो अपको प्रेम करना नहीं बल्कि प्रेम होना पड़ेगा और तब आप प्रेम की निर्जीव तथाकथित श्रेष्ठ परिभाषा में फिट नहीं होते बल्कि प्रेम की परिभाषा आपके अस्तित्व से रिस रिस कर टपकती है।
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